मानव-शिष्य

 

तो ऐसे हैं गीता के भगवान् गुरु, सनातन अवतार, स्वयं श्री भगवान् जो मानव-चैतन्य में अवतीर्ण हुए हैं, ये वे महाप्रभु हैं जो प्राणिमात्र के हृदय में अवतीर्ण हुए हैं, ये वे हैं जो परदे की आड में रहकर हमारे समस्त चिंतन, कर्म और हृदय की खोज का भी उसी प्रकार संचालन करते हैं जैसे दृश्यमान और इन्द्रियग्राह्य रूपों, शक्तियों और प्रवृत्तियों की ओट में रहकर इस जगत् के,जिसको उन्होंने अपनी सत्ता में अभिव्यक्त किया है,महान् विश्वव्यापी कर्म का संचालन करते हैं । उन्नत होने की हमारी संपूर्ण चेष्टा और खोज शांत, तृप्त और परिपूर्ण हो जाती है यदि हम इस परदे को फाड़ सकें और अपने इस बाह्य स्व के परे अपनी वास्तविक आत्मा को प्राप्त हों, अपनी सत्ता के इन सच्चे स्वामी के अन्दर अपनी समग्र सत्ता को अनुभव कर सकें, अपना व्यक्तित्व इन एक वास्तविक पुरुष पर उत्सर्ग करके उनके होकर रहें, अपने मन की सदा छितरी हुई और सदा चक्कर काटनेवाली कर्मण्यताओं को उनके पूर्ण प्रकाश में मिला दें, अपने प्रमादशील बेचैन संकल्प और चेष्टाओं को उन्हींके महत्, ज्योतिर्मय और अखंड दिव्य संकल्प की भेंट कर दें, अपनी नानाविध बहिर्मुखी वासनाओं और उमंगों को, उन्हींके स्वत:सिद्ध आनन्द की परिपूर्णता में त्यागकर, तृप्त करें । यही जगद्गुरु हैं जिनके सनातन ज्ञान के ही बाकी सब उत्तमोत्तम उपदेश केवल विभिन्न प्रतिबिंब और आंशिक शब्दमात्र हैं । यही वह ध्वनि है जिसे सुनने के लिये जीव को जगाना होगा ।

अर्जुनजो इन गुरु का शिष्य है और जिसने युद्धक्षेत्र में दीक्षा ली है इस धारणा का पूरक भाग है; अर्जुन संघर्ष में पड़ी हुई उस मानव-आत्मा का नमूना है जिसे अभी तक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, पर जो मानव-जाति में विद्यमान उन श्रेष्ठतर तथा भागवत आत्मा के उत्तरोत्तर अधिकाधिक समीप में रहने तथा उनके अंतरंग सखा होने के कारण इस ज्ञान को कर्म-जगत् में प्राप्त करने का अधिकारी हो गया है । गीता के प्रतिपादन की एक ऐसी पद्धति भी है जिससे केवल यह उपाख्यान ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण महाभारत मनुष्य के आंतरिक जीवन

 

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का एक रूपकमात्र बन जाता है, और फिर उसमें हमारे इस बाह्य जीवन और कर्म का कोई संबंध नहीं रहता, बल्कि इसका संबंध अंतरात्मा और हमारे अन्दर स्वत्व के लिये लड़नेवाली शक्तियों के युद्ध से रह जाता है । इस प्रकार के विचार की पुष्टि इस महाकाव्य के साधारण स्वरूप और इसकी यथार्थ भाषा से तो नहीं होती और यदि इस विचार पर बहुत अधिक जोर दिया जाय, तो गीता की सीधी-सादी दार्शनिक भाषा आदि से अंत तक क्लिष्ट, कुछ-कुछ निरर्थक दुर्बोधता में बदल जाएगी । वेद की और कम-से-कम पुराणों के कुछ अंश की भाषा स्पष्ट रूप से रूपकात्मक है, ये स्थूल दृश्यमान जगत् की ओट में रहनेवाली वस्तुओं के वर्णन से और उनके दिग्दर्शन से भरे पड़े हैं, पर गीता में जो कुछ कहा गया है, साफ-साफ कहा गया है और मनुष्य के जीवन में जो बड़ी-बड़ी नैतिक और आध्यात्मिक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं उन्हींको हल करना इसका हेतु है, इसलिए इसकी स्पष्ट भाषा और सुस्पष्ट विचारों को एक ओर धरकर अपने मन के अनुसार तोड-मरोड़कर उनका अर्थ लगाना ठीक नहीं । परन्तु इस विचार में इतना सत्य तो है ही कि गीता की शिक्षा को जितने सुन्दर ढंग से यहाँ बैठाया गया है वह यदि प्रतीकात्मक न भी हो, तो भी उसको एक विशिष्ट प्रकार का नमूना अवश्य ही कहा जा सकता है, और वास्तव में गीता जैसे ग्रंथ की शिक्षा को इसी प्रकार बैठाना ही चाहिये, नहीं तो यह जो कुछ रचना कर रही है उसके साथ इसका कोई संबंध नहीं रह जायेगा । यहाँ अर्जुन एक महान् जगद्व्यापी संघर्ष में राष्ट्रों और मनुष्यों के भगवत्-परिचालित कर्म को करनेवाला एक प्रतिनिधि-पुरुष है । गीता में यह उस कर्मनिष्ठ मानव-जीव का नमूना है जो अपने कर्म द्वारा कर्म के उस उत्कृष्ट और अति भीषण संकट के समय इस समस्या के सामने आ पड़ा है कि मनुष्य के जीवन में और आत्मस्थिति में, यहांतक कि पूर्णतासंबंधी शुद्ध नैतिक आदर्श में भी आपाततः जो यह असंगति दिखायी देती है वह आखिर क्या है?

अर्जुन इस युद्ध में रथी है और भगवान् श्रीकृष्ण उसके सारथी । वेद में भी एक जगह यह वर्णन आता है कि मानव-आत्मा और देव एक रथ पर बैठे लड़ाई लड़ते हुए किसी महान् गंतव्य स्थान की ओर जा रहे हैं । पर वहाँ वह केवल आलंकारिक वर्णन है, रूपक है । देव वहाँ इन्द्र हैं, जो ज्योतिर्लोक और अमृत के स्वामी हैं, दिव्य ज्ञान की शक्ति हैं और वे असत्य, तमस्, परिमितता और मृत्यु की संतानों के साथ युद्ध करनेवाले सत्यान्वेषी मनुष्यों की सहायता के लिये नीचे उतरते हैं; युद्ध आत्मा के शत्रुओं के साथ है जो हमारी सत्ता के उच्चतर लोक का रास्ता रोके हुए हैं; और गंतव्य स्थान है वह वृहत् लोक जो परम सत्य

 

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के आलोक से आलोकित है और जो सिद्ध आत्मा के चिन्मय अमृतत्व का धाम है, जहाँके स्वामी इन्द्र हैं । मानव-आत्मा कुत्स है, वह अपने कुत्स नाम के अनुरूप सतत साक्षी चैतन्य के ज्ञान का साधक है, वह अर्जुन या अर्जुनी का पुत्र है, शुक्ल है, शुक्ल माता श्वित्रा का शिशु है, अर्थात् ऐसा सात्विक, विशुद्ध और प्रकाशमय अंत:करणवाला जीव है जो दिव्य ज्ञान की अटूट गरिमा-महिमा की ओर सदा उन्मुख है । और, जब रथ अपने गंतव्य स्थान अर्थात् इन्द्र के अपने लोक में पहुँचता है तब मानव कुत्स उन्नत होते-होते अपने देव सखा के साथ इतना सादृश्य लाभ करता है कि कौन इन्द्र है और कौन कुत्स, इसकी पहचान इन्द्र की अर्द्धांगिनी शची के कारण ही हो पाती है, क्योंकि शची "ऋत-प्रज्ञा" हैं । यह रूपक स्पष्ट ही मनुष्य के आंतरिक जीवन का है; ज्ञान का प्रकाश जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे मनुष्य सनातन भगवान् का सादृश्य लाभ करता है, यही बात इस रूपक के द्वारा दिखायी गयी है । परन्तु गीता का उपक्रम कर्म से होता है और अर्जुन कर्मी है, ज्ञानी नहीं, योद्धा है, ऋषि-मुनि या तत्व-जिज्ञासु नहीं ।

गीता में आरंभ से ही शिष्य की यह विशिष्ट मनोभूमि स्पष्ट करके बतला दी गयी है और अथ से इति तक इसका पूर्ण निर्वाह हुआ है । सबसे पहले उसकी यह विशिष्ट मनोभूमि प्रकट होती है उसके अपने कार्य के संबंध में, अर्थात् जिस महान् संहार-कार्य का वह प्रधान यन्त्र बनने जा रहा है उसके संबंध में जिस ढंग से उसे होश आया है उसमें, इस होश के आते ही जो विचार उसके जी में उठते हैं उनमें और जिस दृष्टिकोण और प्रेरक-भाव के कारण उसमें इस महाभयानक विपत्ति से पीछे हटने की इच्छा होती है उसमें ये विचार, यह दृष्टिकोण और ये प्रेरक-भाव किसी दार्शनिक या किसी गंभीर विचारशील व्यक्ति के अथवा इस प्रसंग के या ऐसे ही किसी अन्य प्रसंग के सम्मुख खड़े हुए किसी आध्यात्मिक वृत्तिवाले पुरुष के नहीं हो सकते । इनको हम व्यावहारिक या फलवादी मनुष्य के दिमाग की उपज कह सकते हैं, ऐसे मनुष्य की जो भावुक, राग-द्वेषयुक्त, नैतिक और चतुर है, जिसे किसी गंभीर और मौलिक भाव को पकड़ने अथवा किसी गहराई की थाह लेने का अभ्यास नहीं, उसे ऊँचे पर बँधे-बँधाये विचारों को सोचने और वैसे ही कर्म को करने का तथा संकटों और कठिनाइयों को विश्वासपूर्वक पार करने का अभ्यास है, किन्तु अब वह देखता है कि उसके सारे-के-सारे पैमाने उसके काम नहीं आ रहे तथा उसको अपने ऊपर और अपने जीवन पर जो विश्वास था वह एक ही लहर में बहा जा रहा है । अर्जुन जिस संकट में से गुजर रहा है वह इस तरह का है ।

गीता की भाषा में अर्जुन त्रिगुण के अधीन है और त्रिगुण के इसी क्षेत्र में

 

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अबतक निश्चित होकर साधारण मनुष्यों की तरह चलता रहा है । उसका नाम अर्जुन इतने ही अर्थ में चरितार्थ होता है कि वह यहाँतक शुद्ध और सात्विक है कि उसका जीवन ऊँचे और स्पष्ट सिद्धातों और आवेगों से परिचालित होता है और वह स्वभावत: अपनी निम्न प्रकृति को उस महत्तम धर्म के अधीन रखता है जिसे वह जानता है । वह उद्दंड आसुरी प्रवृत्तिवाला पुरुष नहीं है, अपने मनोविकारों का दास नहीं है, उसे शान्ति, संयम तथा कर्त्तव्य-निष्ठा की शिक्षा मिली है, वह देश-कालमान्य उत्कृष्ट मर्यादाओं का, जिनमें उसका जीवन बीता है, तथा जिस धर्म और सदाचार के अन्दर वह पला है उनका पालन करनेवाला है । पर अन्य मनुष्यों के समान उसमें भी अहंकार है, उसका अहंकार शुद्धतर और सात्विक अवश्य है जो मुख्यत: अपने ही स्वार्थों, वासनाओं और मनोविकारों के दासत्व में न धँसा रहकर, धर्म, समाज और दूसरों के हित का भी विचार रखता है । शास्त्रों के अनुसार ही वह रहा और चला है । उसके चित्त में जो सबसे प्रधान भाव या विचार है, मनुष्य के जिस मानदंड के अनुसार वह चलता है, वह है धर्म, अर्थात् सामूहिक, भारतीय धारणा के अनुसार मानव-जाति का परिचालन करनेवाला धार्मिक, सामाजिक और नैतिक नियम, विशेषकर स्वजाति-धर्म अर्थात् क्षात्र धर्म, क्योंकि वह क्षत्रिय है, धीर-वीर उदार राजपुत्र है, योद्धा है, आर्यों का नेता है, इसी क्षात्र-धर्म के अनुसार सदा पुण्य मार्ग पर चलता हुआ वह यहाँतक आया है और अब यहाँ आकर अकस्मात् वह देखता है कि इसने उसको एक अति भीषण, अभूतपूर्व संहार-कर्म के सामने, उस कार्य के प्रमुख पात्ररूप से ला पटका है, ऐसे गृहयुद्ध के सामने ला पटका है जिसमें सभी सुसंस्कृत आर्यराष्ट्र सम्मिलित हैं और जिसमें उनके समस्त मानव-मुकुटमणि नष्ट हो जायेंगे और भय है कि उनकी व्यवस्थित सभ्यता में विश्रृन्खला आ जायेगी और वह विनाश को प्राप्त हो जायेगी ।

फलवादी मनुष्य की यह विशेषता है कि वह अपने संवेदनों के द्वारा ही अपने कर्म के आशय के प्रति सचेत होता है । अर्जुन ने अपने सखा और सारथी से कहा, 'मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलिये', किसी गंभीर भावना से नहीं, बल्कि दर्प के साथ उन करोड़ों मनुष्यों का मुंह एक निगाह में देख लेने के लिये जो अधर्म का पक्ष लेकर आये थे और जिनका अर्जुन को इस रणरंग में सामना करना है, जिन्हें धर्म की विजय के लिये जीतना और मारना है । परन्तु, उस दृश्य को देखने के साथ ही उसकी आँखें खुलती हैं और इस गृह-कलह और पारस्परिक युद्ध का अर्थ उसकी समझ में आता हैयह वह युद्ध है जिसमें एक ही जाति, एक ही राष्ट्र, एक ही वंश के नहीं, बल्कि एक ही कुल और एक ही घर

 

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के लोग एक-दूसरे के शत्रु बन आमने-सामने खड़े हैं । जिन लोगों को यह सामाजिक मनुष्य परम प्रिय और पूज्य मानता है उन्हीं लोगों का उसे शत्रु के नाते सामना करना और वध करना होगा, पूज्यपाद गुरु और आचार्य, पुराने संगी-साथी, मित्र, सहयोद्धा, दादा, चाचा, और वे लोग जो रिश्ते में पिता के समान, पुत्र के समान, पौत्र के समान हैं, वे लोग जिनके साथ रक्त का संबंध है या जो साले-संबंधी हैये सब सामाजिक संबंध यहाँ तलवार के घाट उतारने हैं । यह नहीं कह सकते कि इन बातों को अर्जुन पहले न जानता था, पर उसको इनका जीवंत अनुभव नहीं हुआ था, क्योंकि उसको तो अपने दावों की, अपने ऊपर हुए अत्याचारों की याद थी । उसे यह धुन सवार थी कि सिद्धांतों और न्याय के लिये लड़ना होगा, न्याय और धर्म की रक्षा करनी होगी तथा अधर्म और अत्याचार से युद्ध करके उनको मार भगाना होगा । इसलिए उसने इस युद्ध के इस पहलू के बारे में न तो कभी गहराई के साथ सोचा न अपने हृदय के अंदर और जीवन के मर्मस्थल में अनुभव ही किया । भगवान् सारथी यह बात अब उसकी अंतर्दृष्टि के सामने लाते हैं, उसकी आँखोंके आगे सनसनीखेज तरीकेसे उपस्थित करते हैं और इससे उसकी संवेदनात्मक, प्राणमय और भावमय सत्ताके मर्म-स्थानोंमें एक गहरा धक्का सा लगता है ।

इसका पहला परिणाम यह होता है कि उसकी इन्द्रियाँ और उसका शरीर भयानक संकट में पड़ जाते हैं जिससे उपस्थित कर्म और उसके भौतिक फल से और फिर जीवन से ही उसका चित्त उचाट हो जाता है । अहंभावयुक्त मानव जाति के प्राण जिस सुख और भोग के पीछे पड़े रहते हैं उनसे अर्जुन अपना मुँह फेर लेता है और क्षत्रियों के प्राणों में विजय, राज्य, अधिकार और मनुष्यों पर शासन करने की जो प्रधान लालसा रहती है, अर्जुन उसका भी त्याग कर देता है । यह धर्मयुद्ध आखिर है किसलिए, इस बात को यदि व्यावहारिक अर्थ में विचारा जाय, तो इसका सिवाय इसके और क्या हेतु है कि हमारी, हमारे भाइयों और हमारे दलवालों की बन आवे, हम लोग अधिकारारूढ़ हों, नाना प्रकार के भोग भोगें और संसार में राज करें? पर इन चीजों के लिये यदि इतनी बड़ी कीमत देनी पड़ती हो, तो ये व्यर्थ हैं । इन चीजों का स्वयं अपना मूल्य कुछ भी नहीं है, ये तो सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को सुसंपन्न बनाये रखने के साधनमात्र हैं और 'मैं अपने परिवार और जाति के लोगों का संहार करके इन उद्देश्यों को ही नष्ट करने जा रहा हूँ ।' माया-ममता पुकार उठती है, अरे, जिन्हें तुम शत्रु मानकर मारना चाहते हो वे तो अपने ही लोग हैं जिनके लिये जीवन की और सुख की कामना की जाती है । सारी पृथ्वी का, या तीनों लोकों का राज लेकर भी इन्हें भला कौन मारना चाहेगा? इन्हें मारकर फिर यह

 

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जीवन ही क्या रहेगा? उसमें क्या सुख और क्या संतोष होगा? ओफ ! यह सब तो एक महापापमय कांड है ! अब वह नैतिक बोध संवेदनों और माया ममता के विद्रोह का समर्थन करने के लिये जग उठता है, यह पाप है, आपस के लोगों की मार-काट में न कहीं न्याय है, न धर्म; विशेषत: जब कि मारे जाने वाले स्वभावत: पूज्य और प्रेम-भाजन हैं जिनके बिना जीना भार होगा, इन पवित्र भावनाओं की हत्या करना कभी पुण्य नहीं हो सकता, यही नहीं, यह पाप है, दारुण पाप है । माना कि अपराध उनका है, आक्रमण का आरंभ उनकी ओर से हुआ, पाप उनसे शुरू हुआ, लोभ और स्वार्थांधता के पातकी वे ही हैं जिनके कारण यह दशा उत्पन्न हुई; फिर भी जैसी परिस्थिति है उसमें अन्याय का जवाब हथियारों से देना खुद ही एक पाप होगा और यह पाप उनके पाप से भी बढ़कर होगा, क्योंकि वे तो लोभ से अंधे हो रहे हैं और अपने पाप का उन्हें ज्ञान नहीं, पर हम लोग तो जानते हैं कि यह लड़ाई लड़ना पाप है । लड़ाई भी किसलिए? कुल-धर्म की रक्षा के लिए, जाति-धर्म की रक्षा के लिए, राष्ट्र-धर्म की रक्षा के लिए? पर इन्हीं धर्मों का तो इस गृह-युद्ध से नाश होगा; कुछ नष्टप्राय होगा, जाति का चरित्र कलुषित होगा और उसकी शुद्धता नष्ट होगी, सनातन जाति-धर्म और कुलधर्म नष्ट होंगे । जाति ध्वस्त होगी, परंपरा टूट जायेगी, लोग आचार-भ्रष्ट होंगे और इस अपराध के अपराधियों को नरक मिलेगा; इस भयंकर गृह-युद्ध के यही प्रत्यक्ष परिणाम होंगे । इसलिए, अर्जुन गांडीव धनुष और कभी खाली न होनेवाला तरकस, जिनको देवताओं ने उसको इस विषम घड़ी के लिये दिया था, नीचे रखकर पुकार उठता है,  'मेरा कल्याण तो इसीमें अधिक है कि धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्रहीन और विरोध न करनेवाले को मार डालें! मैं तो युद्ध नहीं करुंगा ।'

अतएव, अर्जुन के ऊपर जो यह आंतरिक संकट आया उसका कारण किसी रहस्यवादी जिज्ञासु के अन्दर उठनेवाला कोई प्रश्न नहीं है, न यह इस कारण से ही पैदा हुआ है कि अर्जुन जीवन के दृश्यों से घबराकर अपनी दृष्टि को वस्तुओं के सत्य की, स्थिति के यथार्थ आशय की खोज में और इस जगत् की अंधेरी पहेली को सुलझाने या उससे बचने के लिये अंतर्मुखी करना चाहता हो, यह तो उस मनुष्य के इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय और धर्म-बुद्धि का विद्रोह है जो अबतक निश्चित भाव से कर्म और उसके प्रचलित मानदंड से संतुष्ट रहा है । पर इस मानदंड और इन कर्मों ने उसे एक ऐसे भीषण विप्लव में लाकर झोंक दिया है कि यहाँ वे कर्म और उनके वे मानदंड एक-दूसरे के और स्वयं अपने भी भयंकर विरोधी हो गये हैं और आचार का कोई आधार ही नहीं रह गया है जिसपर वह

 

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खड़ा हो सके, जिसके सहारे वह चल सके, अर्थात् कोई धर्म ही नहीं रह गया । मनोमय कर्मी पुरुष के ऊपर आनेवाली सबसे बड़ी आपत्ति यही है, यही उसकी सबसे बड़ी च्युति और अवनति है । इस विद्रोह का स्वरूप सहज और स्वाभाविक है; इन्द्रियों और मन का विद्रोह यों कि वे भय, अनुकंपा और जुगुप्सा से विवश हो गये हैं, प्राणों का विद्रोह यों कि कर्म के इष्ट और सुपरिचित उद्देश्यों में और जीवन के ध्येय में कोई आकर्षण, कोई श्रद्धा नहीं रह गयी, हृदय का विद्रोह यों कि समाज के अंगभूत मनुष्यमात्र के ह्रदय में स्नेह, श्रद्धा, सबके लिये समान सुख और संतोष की इच्छा आदि जो भाव होते है, वे ही उस कठोर कर्तव्य के विरुद्ध आ कर खड़े हो गये, क्योंकि उस कर्तव्य से ये भाव कुचले जाने लगे; धर्म-बुद्धि का विद्रोह यों कि पाप और नरक की मौलिक भावनाएँ उठ खड़ी हुई और रुधिर-प्रदिग्ध भोग कहकर युद्ध से हटने का तकाजा करने लगीं; प्रकृत व्यवहार की दृष्टि से विद्रोह यों कि धर्माधर्म-विचार के इस मानदंड को मानने का यह फल देख पड़ा कि धर्म-कर्म का जो प्रकृत उद्देश्य है, वही इससे नष्ट हुआ जाता है । पर सबका परिणाम यह रहा कि अर्जुन के सर्वांतःकरण का दिवाला निकल गया और "कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:" कहकर अर्जुन अपनी इसी अवस्था को प्रकट करता है, न केवल उसका विचार, बल्कि उसका हृदय, उसकी प्राणगत वासनाएँ, उसकी संपूर्ण चेतना ही उपहत हो गयी और वह ''धर्म-संमूढचेता:" हो गयाधर्म का उसे कहीं पता नहीं चला, क्या करें और क्या न करें इसको स्थिर करने का कोई पैमाना नहीं मिला । बस, इसीलिए वह शिष्य होकर श्रीकृष्ण की शरण में आता है और वह यथार्थ में प्रार्थना करता है कि मुझे वह वस्तु दीजिये जिसको मैंने खो दिया है, एक सच्चा धर्म दीजिये, धर्म का एक स्पष्ट विधान बता दीजिये, एक मार्ग दिखा दीजिये जिसके सहारे मैं फिर दुबारा निश्चय के साथ चल सकूं । वह इस जीवन या संसार के रहस्य और इस सबके उद्देश्य और हेतु को नहीं जानना चाहता, जानना चाहता है केवल धर्म ।

तथापि भगवान् उसे वही रहस्य बतलाना चाहते हैं जिसे जानने की अर्जुन ने कोई इच्छा नहीं की, कम-से-कम उसका उतना ज्ञान तो देना ही चाहते हैं जो उसे किसी उच्चतर जीवन की ओर ले जाने के लिये आवश्यक है; क्योंकि भगवान् चाहते हैं कि अर्जुन सब धर्मों का त्याग कर दे तथा उसका एक ही वृहत् और विशाल धर्म हो और वह हो भगवान् में सचेतन होकर निवास करना तथा

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१ धर्म शब्द का धात्वर्थ धारण करना हैअर्थात् धर्म माने वह विधि, मान, नियम, कर्म और जीवन जिसको धारण किया जाता है और जो सब पदार्थों को एकत्र धारण करता है ।

 

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उसी चेतना से युक्त होकर कर्म करना । इसलिए आचार के सामान्य मानकों के प्रति अर्जुन के अंतःकरण के विद्रोह की भलीभाँति जाँच करके भगवान् उसे वह बात बतलाना आरम्भ करते हैं जिसका सम्बन्ध आत्मिक अवस्था से है, कर्म के किसी बाह्य विधान से बिल कुल नहीं । अर्जुन को उपदेश किया जाता है कि तुम आत्मा की समता में निवास करो, कर्म के फलों की इच्छा त्याग दो, पाप-पुण्य-सम्बन्धी जो बौद्धिक विचार हैं उनसे ऊपर उठो, मन को समाधि में लगा कर, योगस्थ होकर अर्थात् भगवान् में ही सर्वथा स्थित होकर रहो और कर्म करो । अर्जुन को संतोष नहीं होता, वह जानना चाहता है कि यह स्थिति प्राप्त होने से मनुष्य के बाह्य कर्म पर क्या असर होगा, उसके भाषण पर, उसकी गति विधि पर, उसकी अवस्था पर इसका क्या परिणाम होगा, इसके कारण इस कर्मनिष्ठ सजीव मानवप्राणी में क्या अंतर होगा? श्रीकृष्ण फिर भी, उन्हीं ज्ञान की बातों को विशद करते हैं जिन्हें वे यहाँतक बता चुके हैं, कर्म के पीछे रहनेवाली आत्मा की अपनी स्थिति का ही निर्देश करते हैं, स्वयं कर्म की कोई बात नहीं कहते । वह बतलाते हैं कि अपनी बुद्धि को कामना-वासनारहित समता की अवस्था में स्थिर रूप से रखो, बस इसी की जरूरत है । अर्जुन अधीर हो उठता है, क्योंकि जो आचार वह जानना चाहता था उसका कोई पता नहीं चलता, बल्कि यहाँ तो उसे संपूर्ण कर्म का अभाव ही देख पड़ता है । अर्जुन बड़ी व्यग्रता से पूछता है, "यदि बुद्धि को आप कर्म से श्रेष्ठ बतलाते हैं, तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? आपकी दुतरफा मिली हुई बात से मेरी बुद्धि घबरा जाती है, एक बात निश्चित रूप से बताइये, जिससे मैं श्रेय की प्राप्ति कर सकूँ।'' फलवादी मनुष्य के लिये आध्यात्मिक विचार तथा आन्तरिक जीवन का कोई मूल्य नहीं होता यदि इनसे उसे उस धर्म की प्राप्ति न होती हो जिसे वह खोजता है । उसकी खोज यही होती है कि वह सांसारिक जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिये कोई विधान पा जाय, भले ही जरूरत होने पर यह विधान उसे संसार को छोड़ देने के लिये क्यों न कहे, कारण यह भी एक निश्चयात्मक बात होगी जिसको वह समझ सकेगा । परन्तु संसार में रहकर कर्म करना और फिर उससे परे रहना, यह एक ऐसी "व्यामिश्र" ( मिली हुई ) और चक्कर में डालनेवाली बात है जिसे ग्रहण करने के लिये उसमें धैर्य नहीं ।

अर्जुन के शेष सभी प्रश्न और कथन इसी स्वभाव और चारित्र्य से उत्पन्न हुए हैं । जब उससे कहा जाता है कि आत्मस्थिति प्राप्त होने पर यह जरूरी नहीं कि कर्म का बाह्य रूप भी बदल जाय, कर्म सदा स्वभाव के अनुसार ही करना होगा, चाहे वह कर्म दूसरे के कर्म की तुलना में सदोष और त्रुटिपूर्ण ही क्यों न

 

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प्रतीत हो, तब इस बात से उसका चित्त घबरा उठता है । स्वभाव के अनुसार कर्म करना होगा ! किन्तु, अर्जुन का जो मुख्य विषय है अर्थात् इस कर्म को करने से पाप की जो आशंका होती है उसका क्या हुआ? क्या यह स्वभाव के कारण ही नहीं है कि मनुष्य मानो विवश होकर, अपनी मर्जी के खिलाफ भी पाप और अपराध करते हैं? इसी प्रकार जब श्रीकृष्ण आगे चलकर कहते है कि मैंने ही पुराकाल में यह योग विवस्वान् को बतलाया था, जो काल पाकर नष्ट हुआ और वही मैं आज तुम्हें फिर बता रहा हूँ, तब भी अर्जुन की व्यावहारिक बुद्धि चकरा गयी और उसने जब इसका खुलासा पूछा तो श्रीकृष्ण ने अवतार-तत्व और उसके सांसारिक प्रयोजन के सम्बन्ध में वे प्रसिद्ध वचन कहे, जिनका जहाँ-तहाँ पुन:-पुनः स्मरण किया जाता है । अर्जुन फिर श्रीकृष्ण के शब्दों से घबरा जाता है जब श्रीकृष्ण कर्म और कर्म-संन्यास दोनों का समन्वय करते हैं और वह फिर वही बात कहता है कि एक ही बात निश्चित रूप से बताइये, यह "व्यामिश्र" वाक्य नहीं । अर्जुन से जिस योग को अपनाने के लिये कहा जा रहा है उसका स्वरूप जब वह पूरे तौर पर समझ लेता है तो उसका फलवादी स्वभाव जो अपने मन के संकल्प, पसंद और इच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होना जानता है, इस योग को बहुत कठिन जानकर शंकित हो उठता है । अर्जुन पूछता है कि उस पुरुष की क्या गति होती है जो इस योग का साधन करता तो है पर योगसिद्धि को नहीं प्राप्त होता, क्या वह मानव कर्म, विचार और भाववाले इस जीवन को जिसे योग के लिये पीछे छोड़ दिया था तथा उस ब्राह्मी स्थिति को जिसे पाने के लिये वह आगे बढ़ा था, दोनों को ही तो नहीं खो बैठता और इस प्रकार दोनों ओर से भ्रष्ट होकर छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?

जब उसकी सब शंकाओं का समाधान हो गया और सब उलझनें सुलझ गयीं और उसने जाना कि भगवान् को ही उसे अपना धर्म-कर्म मानना होगा, तब भी वह बार-बार उसी सुस्पष्ट और सुनिश्चित ज्ञान के लिये आग्रह करता है, जो उसे इस मूल तक, इस भावी कर्म-विधान तक हाथ पकड़कर पहुँचा दे । सत्ता की जिन विविध अवस्थाओं में हम सामान्यतया रहते हैं उनमें हम भगवान् को कैसे परखें? संसार में उनकी आत्मशक्ति की वे कौन-सी प्रधान अभिव्यक्तियाँ है जिनको वह ध्यान द्वारा पहचान सकता है और अनुभव कर सकता है? क्या अर्जुन इस क्षण में भी उनके भागवत विश्वरूप को नहीं देख सकता जो मानव मन, बुद्धि और शरीर की आड में रहकर उससे वास्तव में बात कर रहा है? अर्जुन के अंतिम प्रश्न, कर्म-संन्यास और सूक्ष्मतर संन्यास (जिसे करने को अर्जुन से कहा जा रहा है ) के बीच भेद को तथा पुरुष और प्रकृति, क्षेत्र और

 

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क्षेत्रज्ञ के बीच वास्तविक भेद को स्पष्टता से जानने के लिये हैं जो कि भागवत संकल्प से प्रेरित होकर निष्काम कर्म करने के अभ्यास के लिये अत्यंत आवश्यक है; और फिर अंत में अर्जुन प्रकृति के तीन गुणों के कर्म और उनके परिणाम सुस्पष्ट रूप से समझ लेना चाहता है, क्योंकि इन तीनों गुणों को पार करने के लिए उससे कहा गया है ।

गीता में भगवान् गुरु अपने ऐसे शिष्य को अपनी भागवत शिक्षा प्रदान कर रहे हैं । अहंभाव के साथ कर्म करते-करते शिष्य अपने आंतर विकास की उस अवस्था को प्राप्त हुआ है जिसमें उसके अहंता-ममतायुक्त जीवन और सामाजिक आचार-विचार का कोई मानसिक, नैतिक और भाविक मूल्य नहीं रह गया है, हठात् उनका दिवाला निकल गया है, ठीक इसी संधिक्षण में गुरु अपने शिष्य को पकड़ते हैं और वे उसे इस निम्न जीवन से उठाकर पर-चैतन्य में ले जाना चाहते हैं कर्म की इस अज्ञानमयी आसक्ति से छुड़ाकर उस सत्ता को प्राप्त कराना चाहते हैं, जो कर्म के परे है, पर है कर्म का उत्पादन और व्यवस्थापन करनेवाली । ये उसे अहंकार से निकालकर आत्मा में ले जाना चाहते हैं मन-बुद्धि, प्राण और शरीर के जीवन से निकालकर मन-बुद्धि के परे की उस परा प्रकृति में ले जाना चाहते हैं जो भागवत स्थिति है । इसके साथ ही भगवान् को उसे वह चीज भी देनी है जो वह माँग रहा है और जिसे माँगने और ढूंढने की प्रेरणा उसे अपनी अंतःस्थित सत्ता के निर्देश के द्वारा मिल रही है, अर्थात् इस जीवन और कर्म के लिए एक नवीन धर्म देना है जो इस अपर्याप्त सामान्य मनुष्य-जीवन के परस्पर विग्रह, विरोध, उलझन और भ्रामक निश्चयों से परिपूर्ण विधान से बहुत ऊपर की चीज है, वह परम धर्म जिससे जीव कर्म-बंध से मुक्त होता है और फिर भी अपने भागवत स्वरूप को विशाल मुक्त स्थिति में कर्म करने और विजय संपादन करने की शक्ति से युक्त होता है । क्योंकि कर्म तो करना ही होगा, जगत् को अपने कालचक्र पूरे करने ही होंगे और मनुष्य की आत्मा को उस नियत कर्म की ओर से अज्ञानवश अपनी पीठ नहीं मोड़नी चाहिये जिसके लिये वह यहां आयी है । गीता की शिक्षा का संपूर्ण क्रम, उसकी व्यापक-से-व्यापक परिक्रमा में भी, इन्हीं तीन उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त है और उधर ही ले जानेवाला है।

 

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